बुधवार, 29 दिसंबर 2010

विलाप

सुन अग्नि का वो करुण विलाप
तरु भी सिसक पड़े
खग, विहग भी बौराए से बिलख पड़े
हाय !कौन सी दिशा जाकर हम
मदद लिवा ले आये .
धरा देख वो अग्निकांड ,बिलख पड़ी !
आह ! ज्वाला  तेरी लपटों में तो देख
मेरी सोंधी गंध भी मिट गयी
अब मेरी देह से तो मेरे बच्चों के जलने की गंध आती है
आह मुझ से न देखा जायेगा मेरे ही अंश का ऐसे जलना
क्या सुन रही हो तुम इस माँ की करुण पुकार
या फिर निस्पंद हो गयी हो जल, जल  कर इतनी बार
मत जल इतना तू , पापिन कहलाएगी
कहाँ धोएगी भला खुद को
इतनी कलुषित , मलिन तू हो जाएगी
तेरी मलिनता से शायद
वो गंगा भी मैली हो जाएगी

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

chand ki baatai

शबनमी बूंदों सी , टप टप जब्त होती रही
धरा के तन में वो चाँद की बाते
नर्म थी मिटटी ,खुद बा खुद खिल उठे थे गुल
दूर से देख कर झूम लेती थी वो चाँद की लिखी  इबारते
पढती तो कभी चूम लेती वो मीठी मीठी ,
कभी फूल तो कभी कांटो सी बाते

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

nirmamta

निर्ममता का कुटिल अट्टहास गूंज रहा था,
मेरी इन आँखों में रुधिर जल बन उतर आया
मैं पगलायी,बौराई सी मानवता, मानवता चिल्लाई !!!
अरी निर्मम मानवी तू किस सघन वन जा बैठी
या फिर मानवते,तूने निर्ममता का रूप धर लिया
क्या फिर मानवता के अमर-पथ पर चलना छोड़ दिया
क्या जीती है इस जग में अब भी ?
तूने किया क्यों ऐसा कुक्र्त्य हाय!
प्राणी का प्राणी से बस खाली
निर्ममता का ही नाता जोड़ दिया
तूने तो सदा मानव में  रहने की कसम खायी थी
फिर क्यों हुआ ये जग खाली तुझ से !

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

aahuoti

पशु- आहुति की कुत्सित प्रथा
किसने जानी इस माँ की मौन व्यथा !
था जो अभी सजीव,पड़ा अब रक्तरंजित  निर्जीव
आह बरसने लगा इन क्रद्नमय आँखों  से हलाहल नीर
मिट सकेगी भला कैसे ये पीर
सोच रही धरा धीर गंभीर !

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

pralay pravah

कट्टरता ने जबरन थामा मेरा हाथ
निर्ममता ने किया मुझ पर किया ऐसा
घिनौना प्रहार !
आह ! जली ऐसी ज्वाला
जले दो सुन्दर पुष्प ,नन्हे कम्लान
न देखा जिसने ये सुन्दर संसार ,
देखी निष्ठुरता और ये क्रूर प्रहार
पल में धू-धू कर दहक उठी  मैं प्रलयकारिणी
किया मैंने शोक-विलाप मन मे उठा हाहाकार
तभी चला मदमत हवा का प्रवाह
और उड़ी वो मासूम  राख
कर मुझे कलुषित !
इस प्रलयप्रवाह  में
मैं उठी कराह !!!

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

barbarta

सुनो सुनाती हूँ मैं तुमको
बर्बरता की एक दुर्द्न्त कथा
जब निशीथ बीतने  वाली थी
संग पिता के दो बालक थे निद्रालीन
तभी किया निद्रा ने भी मुझ से परिहास
मैं उनींदी भी चल दी उसके साथ
स्वप्न सलौना कोई उन मासूमों की आँखों ,
मैं आया था देख जिसे वो नन्हा बालक
फ़रिश्ते सा  मुस्काया था
तब क्या खबर थी उसको कि क्रूर नियति ने
चुपके से उसका सुन्दर माथा चूम लिया .
                                                 क्रमश:

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

agnivarsha: asmita

agnivarsha: asmita: "आह! न अब मैं सती रही न अब वो गति रही , न अब वो अग्निहोत्र रही ! ये क्या कहती हो ? तुम तो सदियों से आग हो , आग ही रहोगी . पवित्रता भी तो सदैव..."

agnivarsha: asmita

agnivarsha: asmita: "आह! न अब मैं सती रही न अब वो गति रही , न अब वो अग्निहोत्र रही ! ये क्या कहती हो ? तुम तो सदियों से आग हो , आग ही रहोगी . पवित्रता भी तो सदैव..."

agnivarsha: asmita

agnivarsha: asmita: "आह! न अब मैं सती रही न अब वो गति रही , न अब वो अग्निहोत्र रही ! ये क्या कहती हो ? तुम तो सदियों से आग हो , आग ही रहोगी . पवित्रता भी तो सदैव..."

asmita

आह! न अब मैं सती रही न अब वो गति रही ,
न अब वो अग्निहोत्र रही !
ये क्या कहती हो ?
तुम तो सदियों से आग हो ,
आग ही रहोगी .
पवित्रता भी तो सदैव खाती कसम तुम्हारी .
तुम हो कितनी भोली
बस यूं ही निश्छल बहती रहती हो
तुम क्या जानो
मेरी अस्मिता पर कितने प्रश्नचिन्ह लगे है |
मेरी आन पर कितने संकट आन पड़ें है!facebook

रविवार, 15 अगस्त 2010

pervashta

 दीप  जलाये थे जो तुमने ,
उनकी बुझा दी मैंने बाती
मुहँ सिए सब झेल रही ,
अपनी शापित ज्वालाएँ .
लेकर तुम में जल-समाधि,
शायद ये जलना कुछ कम हो जाये
मैंने कब चाहा ऐसे  जलना
आह! यही तो मेरी परवशता .
हे वेदने ! सचमुच  तुम्हारी पीड़ा
है दुखदायक ,आज जलना भी खुद जले है .
किसने जाना तुम्हारे जलने का दुःख
सब कहते तुमको निर्ममता की दासी .
पर ये गहरे घाव तो तुमको उन
अमानुषों से मिले है .
आह ! इन बर्बर मानवों ने
कितना बेबस, पराधीन कर
दिया है तुमको .    
   

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

vaitarni

क्या पाप किया तुमने जो प्रायश्चित की अग्नि में धुआं -धुआं सी हुई जाती हो .क्या तुम भी आई कोई पाप धोने या फिर  मेरी इस निर्मल दुग्ध धारा में कोई गरल मिलाने आई . आह सखा ! तुमने भी बिसराया मुझको  शायद इस वीभत्स रूप ने भरमाया तुमको ," याद करो हम एक गति और दो नाम न तुझ बिन जीवन न मुझ बिन प्राण ". क्या तुम अग्नि हो ? हाँ विरक्त  सी तुम अग्नि ही तो हो ! पर हे विकराला तुम तो देवो की भी सद्गति करती हो . फिर क्यों आज ऐसे भरमाई , बौरायी  दिल जली सी लगती हो . हे अमृत धारणी, थी तो में भी कभी पवित्र पावक, था मेरा धर्म जलना और  मेरा कर्म भी ,पर जल रही आज अपनी ही आग में आह! कैसे कहूं  मैं पवित्रता का आधार थी .           

सोमवार, 9 अगस्त 2010

agni

  जीर्ण, शीर्ण पराधीन अग्नि वैतरणी तट पर बैठी  नीर  बहा  रही थी , विस्म्रत सी पतितपावनी   ने विस्मय से    पूछा  ?  हे   मलिन  रूग्णा कौन हो तुम ? क्यों  मेरे  अम्रत में तपता  तरल बहाती हो .