रविवार, 15 अगस्त 2010

pervashta

 दीप  जलाये थे जो तुमने ,
उनकी बुझा दी मैंने बाती
मुहँ सिए सब झेल रही ,
अपनी शापित ज्वालाएँ .
लेकर तुम में जल-समाधि,
शायद ये जलना कुछ कम हो जाये
मैंने कब चाहा ऐसे  जलना
आह! यही तो मेरी परवशता .
हे वेदने ! सचमुच  तुम्हारी पीड़ा
है दुखदायक ,आज जलना भी खुद जले है .
किसने जाना तुम्हारे जलने का दुःख
सब कहते तुमको निर्ममता की दासी .
पर ये गहरे घाव तो तुमको उन
अमानुषों से मिले है .
आह ! इन बर्बर मानवों ने
कितना बेबस, पराधीन कर
दिया है तुमको .    
   

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

vaitarni

क्या पाप किया तुमने जो प्रायश्चित की अग्नि में धुआं -धुआं सी हुई जाती हो .क्या तुम भी आई कोई पाप धोने या फिर  मेरी इस निर्मल दुग्ध धारा में कोई गरल मिलाने आई . आह सखा ! तुमने भी बिसराया मुझको  शायद इस वीभत्स रूप ने भरमाया तुमको ," याद करो हम एक गति और दो नाम न तुझ बिन जीवन न मुझ बिन प्राण ". क्या तुम अग्नि हो ? हाँ विरक्त  सी तुम अग्नि ही तो हो ! पर हे विकराला तुम तो देवो की भी सद्गति करती हो . फिर क्यों आज ऐसे भरमाई , बौरायी  दिल जली सी लगती हो . हे अमृत धारणी, थी तो में भी कभी पवित्र पावक, था मेरा धर्म जलना और  मेरा कर्म भी ,पर जल रही आज अपनी ही आग में आह! कैसे कहूं  मैं पवित्रता का आधार थी .           

सोमवार, 9 अगस्त 2010

agni

  जीर्ण, शीर्ण पराधीन अग्नि वैतरणी तट पर बैठी  नीर  बहा  रही थी , विस्म्रत सी पतितपावनी   ने विस्मय से    पूछा  ?  हे   मलिन  रूग्णा कौन हो तुम ? क्यों  मेरे  अम्रत में तपता  तरल बहाती हो .