सुन अग्नि का वो करुण विलाप
तरु भी सिसक पड़े
खग, विहग भी बौराए से बिलख पड़े
हाय !कौन सी दिशा जाकर हम
मदद लिवा ले आये .
धरा देख वो अग्निकांड ,बिलख पड़ी !
आह ! ज्वाला तेरी लपटों में तो देख
मेरी सोंधी गंध भी मिट गयी
अब मेरी देह से तो मेरे बच्चों के जलने की गंध आती है
आह मुझ से न देखा जायेगा मेरे ही अंश का ऐसे जलना
क्या सुन रही हो तुम इस माँ की करुण पुकार
या फिर निस्पंद हो गयी हो जल, जल कर इतनी बार
मत जल इतना तू , पापिन कहलाएगी
कहाँ धोएगी भला खुद को
इतनी कलुषित , मलिन तू हो जाएगी
तेरी मलिनता से शायद
वो गंगा भी मैली हो जाएगी
my mostly poems inspired by the some heartrending event which always to be reason of my writing.
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
chand ki baatai
शबनमी बूंदों सी , टप टप जब्त होती रही
धरा के तन में वो चाँद की बाते
नर्म थी मिटटी ,खुद बा खुद खिल उठे थे गुल
दूर से देख कर झूम लेती थी वो चाँद की लिखी इबारते
पढती तो कभी चूम लेती वो मीठी मीठी ,
कभी फूल तो कभी कांटो सी बाते
धरा के तन में वो चाँद की बाते
नर्म थी मिटटी ,खुद बा खुद खिल उठे थे गुल
दूर से देख कर झूम लेती थी वो चाँद की लिखी इबारते
पढती तो कभी चूम लेती वो मीठी मीठी ,
कभी फूल तो कभी कांटो सी बाते
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