शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

parityag

बाबा अगर न किया होता तुमने माँ का त्याग

खिलते न कभी कीचड़ मे ये अभागे जलजात

आह! भाग्य का परिहास ,देकर प्रकाश तुमको

पाया उसने केवल जल जाने का अधिकार

कैसे दे पाती वो कोई घर मकान

रोटी की चिंता बनी रही सदा उसके जी का जंजाल

पत्थरो के न कभी टूटे अहम् ,शूल ही शूल उसके हिस्से आये

भोला मन समझ न पाया चरित्र इन रक्त-समबंधो का

क्या वो देते जीवन ,कभी न प्यार से माथा चूमा

प्रेम के बदले मिला सदा बिखराव

कैसा आपनापन ?

उस जर्जर सम्बन्ध के खातिर ,हुई सभी आभिलाशाए ख़ाक

कभी न माना उसने जीवन अपना अभिशाप

तुमने तो छोड़ दिया था ,उसने निभाया जीवन्पर्यंत हमारा साथ

कर्त्तव्य -पथ पर चली सदा वो ,न आने दी हम पर कोई आंच !



रविवार, 6 नवंबर 2011

खूनी इबादत

ये कैसी इबादत ये कैसा खुदा
ये कैसा रिवाज ,जिसने बर्बरता को जन्म दिया
खून मै  नहाया ,कैसे उसकी रूह को सुकूं मिला
जिन्दगी की भीख मांगती मासूम चीखे !
रोती बिल्खती वो पथरायी आँखें
जिस हैवनियत से उतार दिया उनको मौत के घाट
क्या कर सकते है वो खुदा के नेक बन्दे किसी एक को भी जिंदा?

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

समर्पण

युग बीते जीवन सदा संघर्ष रहा
 देह ही पहचान बनी,प्रेम का न मेरे कोइ मोल रहा
व्यर्थ हुई  प्राथनायै ,जन्म ,जन्मान्तर  तक चली अग्नि परिक्षायै
मै श्रद्धा  असीम ध्रेय्धारी,निस्ठुरता कि आंधी भी बुझा  न सकी मेरी प्रेम बाती
अश्रुजल से सदा सीची घोर विप्दायै,फूल का जीवन लेकर मैने सीखा सदा सुगन्ध लूटाना
देना या मिट जाना ही मेरा जीवन सार
बिन तुम्हारे न मेरा कोइ जीवन आधार
मै धरती तुम्हारी ,तुम मेरे निस्ठुर आकाश

गुरुवार, 19 मई 2011

चिरनिद्रा

चिरनिद्रा सो जा तू ,चंचल मेरे लाल 
सुन युद्ध की ये दम्भी भंगिमाए 
ये वर्जनाए, क्यों जिद करता है 
इस निस्पंद दुनिया में आने की 
देख इन शस्त्र गर्जन से धरती भी कैसे काँप रही 
बेकसों की आहों से गूंज रहा जग सारा 
उठ रही हर दिशा से विषाक्त स्वार्थों की दम्भी सड़ती सी गंध 
जब से ये घ्रणित युद्ध चला है ,हिंसा दमन ,शोषण ,निर्वस्त्रता 
हर गली , हर घर में  ताक लगाये रहती है 
जहाँ देखती  बेकसी ,वहीँ अपने रक्तरंजित दन्त गड़ा देती है 
इस घोर बर्बरता भरे जग में मैं अब न तुझ को लाना चाहती हूँ 
यहाँ न रुकेगा अब कभी शोषण का शाप ,भूख की झंझा चलती रहेगी सदा 
                                                                                        क्रमश 

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

मोरे कान्हां

मोरे कान्हां काहे सताए सपनो मे आके
दूर कहीं जब कोई बंसी बजाये
इन नयनों से जल छलकता जाये
काहे लागे तू है मोरे आस पास
इन नयनों मे काहे ज्योति 
जो तू मुझ को नज़र न आये
जुग बीते इस बिरहन को , नैन बिछाये
जब जब पवन छू कर तो को आये
इठलाकर पूछे मो से ?
तेरे कान्हां क्यों नहीं आये
मै बावरी सूखे अधरों से बंसी तोरी चुमू ऐसे
इन आंसुओ से चरण पखारे हो तोरे जैसे
मोरे कान्हां काहे तू न आये .

गुरुवार, 24 मार्च 2011

सूनामी

ओ निर्मम विषधारी
कहने को गर्भ मे तेरे मोती पलते
पर अंतस मे तेरे हर पल प्रलय मचलते
मचा कर धरा के हृदय मे हाहाकार
बहने लगा उसकी आँखों से क्रदनमय नीर
भेद जालाधि ने ह्रदय मेरा , ये निर्जन नगर बसाया
निस्पंद पड़ा था चारो ओर
निर्लज हँसता था , इस अमिट दुःख पर मेरे !
आह हो गयी , गोद अब मेरी सूनी
हाय ! तू है घ्रणित ,हिंसक , पशुपरवर्ती का
 लील ली  तूने मानवता सारी
त्राही -त्राही कर उठी मैं !
हाय सूनामी!!!

गुरुवार, 10 मार्च 2011

कश्मीर

यह धुआं -धुआं  सा कैसा ,हवा क्यों दम साधे बैठी  है 
यह रास्ता भटक मैं  किस अंधेर नगरी चली आई 
शमशान सा सन्नाटा पसरा है क्यों चारो ओर
क्या इसी  को स्वर्ग कहते है ?
आह इन बागों के फूल क्यों बिखरे है 
कली नहीं कोई शाख पर, ये कांटे क्यों तनहा रोते  है 
तरु क्यों सर झुकाए खड़े है 
ये कपड़ा-कपड़ा कौन चीखता है 
ये निष्कासित अप्सराएँ क्यों श्वेत शिखर पर बरस रही ,
बदहवास सी क्यों वो किसी गहरी   नदी  का पता पूछ रही ! 
                                                                                क्रमश

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

अभिशप्त

झुठ ही कहा किसी ने , जय हो जग में
जले जहाँ भी ,नमन पुनीत अनल को
आह मैं अभिशप्त ,यह धवंस -अवशेष मेरे ही अंश
इस भस्म राशी  में छिपा कलुषित श्राप
मेरे जलने का कुफल ,पुण्य हो या दुष्पाप
क्या सत्य कहा था भगवान ने 'मुख्य है करता हृदय की भावना '
जल आज अपनी आग में ,मैं चली किसी गहन गुहा
देह रक्तरंजित मन अशांत ,आह मेरा महाविनाश
मेरा ज्वलनशील  कर्मप्रधान
मैं पराधीन ,अभिशप्त,निरुपाय
मेरी  ममता पर हँस रही धरा
हँस पड़ा ये गगन ,शून्य लोक आज !!!