गुरुवार, 24 मार्च 2011

सूनामी

ओ निर्मम विषधारी
कहने को गर्भ मे तेरे मोती पलते
पर अंतस मे तेरे हर पल प्रलय मचलते
मचा कर धरा के हृदय मे हाहाकार
बहने लगा उसकी आँखों से क्रदनमय नीर
भेद जालाधि ने ह्रदय मेरा , ये निर्जन नगर बसाया
निस्पंद पड़ा था चारो ओर
निर्लज हँसता था , इस अमिट दुःख पर मेरे !
आह हो गयी , गोद अब मेरी सूनी
हाय ! तू है घ्रणित ,हिंसक , पशुपरवर्ती का
 लील ली  तूने मानवता सारी
त्राही -त्राही कर उठी मैं !
हाय सूनामी!!!

गुरुवार, 10 मार्च 2011

कश्मीर

यह धुआं -धुआं  सा कैसा ,हवा क्यों दम साधे बैठी  है 
यह रास्ता भटक मैं  किस अंधेर नगरी चली आई 
शमशान सा सन्नाटा पसरा है क्यों चारो ओर
क्या इसी  को स्वर्ग कहते है ?
आह इन बागों के फूल क्यों बिखरे है 
कली नहीं कोई शाख पर, ये कांटे क्यों तनहा रोते  है 
तरु क्यों सर झुकाए खड़े है 
ये कपड़ा-कपड़ा कौन चीखता है 
ये निष्कासित अप्सराएँ क्यों श्वेत शिखर पर बरस रही ,
बदहवास सी क्यों वो किसी गहरी   नदी  का पता पूछ रही ! 
                                                                                क्रमश