my mostly poems inspired by the some heartrending event which always to be reason of my writing.
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
vaitarni
क्या पाप किया तुमने जो प्रायश्चित की अग्नि में धुआं -धुआं सी हुई जाती हो .क्या तुम भी आई कोई पाप धोने या फिर मेरी इस निर्मल दुग्ध धारा में कोई गरल मिलाने आई . आह सखा ! तुमने भी बिसराया मुझको शायद इस वीभत्स रूप ने भरमाया तुमको ," याद करो हम एक गति और दो नाम न तुझ बिन जीवन न मुझ बिन प्राण ". क्या तुम अग्नि हो ? हाँ विरक्त सी तुम अग्नि ही तो हो ! पर हे विकराला तुम तो देवो की भी सद्गति करती हो . फिर क्यों आज ऐसे भरमाई , बौरायी दिल जली सी लगती हो . हे अमृत धारणी, थी तो में भी कभी पवित्र पावक, था मेरा धर्म जलना और मेरा कर्म भी ,पर जल रही आज अपनी ही आग में आह! कैसे कहूं मैं पवित्रता का आधार थी .
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