मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

आकाश

फलक से टुट जाती है नजर न पाकर मेरे निशां
लौट आई प्रतिध्वनि मैरी होकर बेजुबान
कहां हैं मेरे निशां, वक्त की रेत पर एक नदी जो थी पागल, नहीं बाकी अब उसके निशां, वो लौट आयेगी अपने बियाबान में, या विलुप्त होगी तेरे न होने के एतबार में, पर होने न होने के बाद भी कुछ सांसे शेष रहेंगी जो जो ढूंढती रहेगी तेरे निशां। मै थी एक भटकती हवा, एक ख्वाब भर थी जिदंगी मेरी, तुझको पाना ख्वाब ही रहा , खुद ब खुद मिटाने लगे हम अपने निशां। 

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