निर्ममता का कुटिल अट्टहास गूंज रहा था,
मेरी इन आँखों में रुधिर जल बन उतर आया
मैं पगलायी,बौराई सी मानवता, मानवता चिल्लाई !!!
अरी निर्मम मानवी तू किस सघन वन जा बैठी
या फिर मानवते,तूने निर्ममता का रूप धर लिया
क्या फिर मानवता के अमर-पथ पर चलना छोड़ दिया
क्या जीती है इस जग में अब भी ?
तूने किया क्यों ऐसा कुक्र्त्य हाय!
प्राणी का प्राणी से बस खाली
निर्ममता का ही नाता जोड़ दिया
तूने तो सदा मानव में रहने की कसम खायी थी
फिर क्यों हुआ ये जग खाली तुझ से !