चिरनिद्रा सो जा तू ,चंचल मेरे लाल
सुन युद्ध की ये दम्भी भंगिमाए
ये वर्जनाए, क्यों जिद करता है
इस निस्पंद दुनिया में आने की
देख इन शस्त्र गर्जन से धरती भी कैसे काँप रही
बेकसों की आहों से गूंज रहा जग सारा
उठ रही हर दिशा से विषाक्त स्वार्थों की दम्भी सड़ती सी गंध
जब से ये घ्रणित युद्ध चला है ,हिंसा दमन ,शोषण ,निर्वस्त्रता
हर गली , हर घर में ताक लगाये रहती है
जहाँ देखती बेकसी ,वहीँ अपने रक्तरंजित दन्त गड़ा देती है
इस घोर बर्बरता भरे जग में मैं अब न तुझ को लाना चाहती हूँ
यहाँ न रुकेगा अब कभी शोषण का शाप ,भूख की झंझा चलती रहेगी सदा
क्रमश