गुरुवार, 24 मार्च 2011

सूनामी

ओ निर्मम विषधारी
कहने को गर्भ मे तेरे मोती पलते
पर अंतस मे तेरे हर पल प्रलय मचलते
मचा कर धरा के हृदय मे हाहाकार
बहने लगा उसकी आँखों से क्रदनमय नीर
भेद जालाधि ने ह्रदय मेरा , ये निर्जन नगर बसाया
निस्पंद पड़ा था चारो ओर
निर्लज हँसता था , इस अमिट दुःख पर मेरे !
आह हो गयी , गोद अब मेरी सूनी
हाय ! तू है घ्रणित ,हिंसक , पशुपरवर्ती का
 लील ली  तूने मानवता सारी
त्राही -त्राही कर उठी मैं !
हाय सूनामी!!!

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस सुन्दर कविता को पढवाने के लिए मेरी बधाई स्वीकारें

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  2. वैष्णवी जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    शायद पहली बार आया हूं आपके यहां , अच्छा लगा ।
    कुछ रचनाएं पुरानी पोस्ट्स की भी पढ़ीं …

    प्रस्तुत कविता भी आपकी लेखनी की सामर्थ्य बता रही है …

    ओ निर्मम विषधारी
    कहने को गर्भ मे तेरे मोती पलते
    पर अंतस मे तेरे हर पल प्रलय मचलते


    मानव जाति के प्रति आपकी संवेदना स्पष्ट दृष्टिगत हो रही है … साधुवाद !

    निरंतर श्रेष्ठ सृजन के लिए मंगलकामनाएं हैं …

    * श्रीरामनवमी की शुभकामनाएं ! *

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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