बुधवार, 4 जनवरी 2012

khawabo ke khandar

ख्वाबो  के इन खंडरो मे भटक रहे अपनी सुधि बिसराए 
किस्मत के थे मारे जज्बात हमारे ,फिर भी चुन चुन कर संजो देते है 
बिखरे थे जो अहसास  सारे ,किस्मत की वो काली ,ऊची  दीवारे 
तोड़  सके न ,विफल हुए जतन सारे 
कितने सावन आये ,रहा मन मरुस्थल 
चुभते रहे कांटे आस वाले 
जीते जी कब बन सके ताजमहल 
अब इस मन को  कौन  समझाए 
अब ये खंडर ही शीश महल अपने 
ये खारा पानी ही गंगा जल !!!!!!!!!!!!!

2 टिप्‍पणियां:

  1. जीते जी कब बन सके ताजमहल
    अब इस मन कौन समझाए
    अब ये खंढर ही शीशमहल अपने
    ये खारा पानी ही गंगाजल

    बहुत खूब
    हां, करना पड़ता है जिन्दगी से समझौता

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